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विज्ञान में नकारात्मकता और अंतर्विरोधों की विनम्र भूमिका

 विज्ञान में नकारात्मकता और अंतर्विरोधों की विनम्र भूमिका

                     



28 फरवरी 1928 को सर सीवी रमन ने स्पेक्ट्रोस्कोपी में एक महत्वपूर्ण खोज की थी जिसे रमन प्रभाव कहा जाता है । इस दिन को जीवंत बनाने के लिए 1987 में भारत सरकार ने हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाने की घोषणा की थी। इस खोज के लिए उन्हें भौतिक विज्ञान का नोवेल पुरुस्कार मिला था।

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर हम विज्ञान के विकास में अंतर्वि
रोध और नकारात्मकता की विनम्र भूमिका की चर्चा करेंगे।

                 



हम जानते हैं कि अंतर्विरोध और नकारात्मकता को प्रायः अच्छा नहीं माना जाता और हम सभी को यही कहा जाता है कि  अंतर्विरोध व नकारात्मक विचारों से बचिए क्योंकि इससे कुछ भी हासिल नहीं होता। पर यह भी एक विचित्र तथ्य है कि विज्ञान में प्रायः सभी अनुसंधान अंतर्विरोध और नकारात्मकता से ही शुरू होते हैं। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए अब ये निश्चित हो चुका है कि विज्ञान में कुछ भी नकारात्मक नहीं है और वैज्ञानिक सकारात्मकता का जन्म नकारात्मकता से ही होता है।

मैं विज्ञान का शिक्षक होने के कारण आपको दो उदाहरण देकर इस बात को समझाने का प्रयास करूंगा। सन 1815 में स्वीडन के वैज्ञानिक बर्जीलियस ने कहा कि ‘’कार्बनिक यौगिकों को प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता क्योंकि उनमें एक रहस्यमय शक्ति होती है जो प्रयोगशाला में उत्पन्न नहीं की जा सकती।‘’
इसे आप नकारात्मक सिद्धान्त ही तो कहेंगे। लेकिन इस नकारात्मक सिद्धांत ने वैज्ञानिक जगत में बड़ी विनम्र भूमिका अदा की और बर्जीलियस के ही जर्मन शिष्य वोहलर ने 1829 में अमोनियम साइनेट को गर्म करके यूरिया बना दिया

इसके बाद कार्बनिक यौगिक बनाने की होड़ लग गयी। कोल्बे महोदय ने ऐसीटिक अम्ल, बर्थेलो ने मीथेन बनाकर बर्जीलियस की नकारात्मकता को सकारात्मकता में बदल दिया और इस तरह कार्बनिक रसायन का जन्म हुआ।
दूसरा उदाहरण भौतिक विज्ञान से दिया जा सकता है। भौतिकशास्त्री सादी कार्नो  का कहना था कि ‘प्रकृति में ताप की मात्रा स्थिर होती है वह सिर्फ एक स्तर से दूसरे तक जा सकती है।लेकिन जल्द ही दूसरे वैज्ञानिक जूल ने प्रयोगों द्वारा सिद्ध कर दिया कि कार्य करने से ताप भी उतपन्न किया जा सकता है। इन अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए ही उष्मागतिकी (थर्मोडायनामिक्स) का जन्म हुआ।

ऊपर की दोनों बातें यह स्पष्ट करती हैं कि नकारात्मकता या अंतर्विरोध विज्ञान के विकास में बड़ी ही विनम्र भूमिका निभाते हैं। दरअसल किसी भी समस्या की समझ के दो स्तर होते हैं जब हमें लगता है कि पहला स्तर पूरा हो गया है तभी उसमें कोई नई उलझन आ जाती है जिसे सुलझाने के लिए अपेक्षाकृत उच्च मानसिक स्तर की आवश्यकता होती है।

बर्जीलियस और कार्नो की नकारात्मकता से सकारात्मकता उत्पन्न होने का कारण बताते हुए भौतिक विज्ञानी फैंइंमान अपनी पुस्तक Nature of Physical Laws में लिखते हैं  कि-

'' वैज्ञानिक उन्हीं क्षेत्रों में मन लगाकर खोज करते हैं जहां हमारे सिद्धान्तों के खंडन की संभावना अधिक होती है अर्थात  वे यथाशीघ्र अपने ही सिद्धांत के  खंडन करने की कोशिश करते हैं क्योंकि यही प्रकृति का एकमात्र नियम है।''

उनका कहना था कि शंका विकासशील विज्ञान का अनिवार्य अंग है, वैज्ञानिक ज्ञान की स्थापना है। या तो हम अपनी शंकाओं के लिए दिमाग के दरवाजे खुले रखें या फिर प्रगति का पथ रोक दें। प्रश्न के बिना ज्ञान पैदा नहीं होता और प्रश्न शंका के बिना नहीं उठते हैं।

एक वैज्ञानिक के शब्दों में ‘’विज्ञान के अस्तित्व के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है कि समान परिस्थितियों में समान परिणाम प्राप्त हों।‘’

लेकिन वैज्ञानिक महोदय ने इसमें थोड़ी सी कमी छोड़ दी। पहली यह कि आप सभी परिस्थितियों को पूरी शुद्धता से पुनः प्रकट नहीं कर सकते। दूसरी यह कि प्रकृति और विज्ञान से आप यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वे आपके अनुसार चलें और किसी पूर्वनिर्धारित प्रतिबंधों का पालन करें।

रम्फोर्ड ने अपनी पुस्तक Heat and Latent Heat में लिखा है-

‘ विज्ञान के अस्तित्व के लिए अनिवार्य शर्त है – प्रखर बुद्धि जो प्रकृति से कभी यह मूर्खतापूर्ण मांग नहीं करती कि वह पूर्व निश्चित प्रतिबंधों का पालन करे। किसी घटना के सभी पक्षों को स्पष्ट करने, सभी अन्तर्सम्बन्धों को गहराई से समझने और वैज्ञानिक विधियों का सही सही चित्रण करने के लिए प्रखर बुद्धि आवश्यक है।‘

विज्ञान में आंखे धोखा खा जाती हैं-

विज्ञान के क्षेत्र में दृष्टि सुगमता सबसे घातक होती है। अर्थात जो कुछ आंखों से दिख रहा है वह सही नहीं है। यानी दृष्टि सुगमता विज्ञान के क्षेत्र में सबसे अविश्वसनीय है और इसके कारण हम तमाम तरह की भ्रांतियां दिमाग में पैदा कर लेते हैं। हमें आंखों से यही दिखता है कि धरती स्थिर है और आकाशीय पिंड उसकी परिक्रमा करते दिखाई देते हैं।यह हमारा दृष्टि भृम है, अज्ञान है जिसे हम ज्ञान समझने की भूल कर लेते हैं।

पोलैंड के महान वैज्ञानिक कोपरनिकस(1473-1543) ने दृष्टि सुगमता पर पहला प्रहार किया और उन्होंने दुनिया के सामने अपने नए वैज्ञानिक सिद्धांत को प्रतिपादित किया-

‘’ जरूरी नहीं कि दुनिया वैसी ही हो जैसा हम सोचते और देखते हैं। जो कुछ हम देखते हैं और धार्मिक ग्रंथों में हमें दिखाया जाता है उसकी वैज्ञानिक पड़ताल जरूरी है। इसलिए विज्ञान का लक्ष्य है दृश्य सुगमता के पर्दे को फाड़कर घटनाओं के वास्तविक सत्व को सामने लाना।‘’

कोपरनिकस ने यह भी प्रस्तावित किया कि जो तारे हमको अपेक्षाकृत अधिक चमकदार दिखते हैं जरूरी नहीं कि यह सच हो इसका उल्टा भी हो सकता है।
कोपरनिकस के सिद्धांत को समझने के लिए हम एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं।

पृथ्वी से हमें चार तारे चमकते हुए दिखते हैं सूर्य सबसे अधिक चमकदार दूसरे स्थान पर साइरस तीसरे स्थान पर वेगा और चौथे स्थान पर ध्रुव तारा।
लेकिन यह सब कल्पनातीत विशाल दूरियों का खेल है। दिखने वाली चमक वास्तविकता से एकदम विपरीत है।

यदि इन तारों को पृथ्वी से सामान दूरी पर रखें तो परिणाम एकदम सही निकलते हैं। सबसे ज्यादा चमकीला ध्रुव तारा, दूसरे स्थान पर वेगा, तीसरे पर साइरस और अंत में सूर्य आता है जिसे हमने मूर्खता से सबसे ज्यादा चमकदार समझ लिया था।

              

हर वैज्ञानिक सिद्धांत की अपनी सीमाएं होती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हर वैज्ञानिक सिध्दांत उसकी परिधि में आने वाली घटनाओं और परिस्थितियों के लिए ही सत्य होता है। हर वैज्ञानिक सिद्धान्त अनिवार्य रूप से प्रतिबन्धित होता है और प्रकृति की अनन्त विविधतापूर्ण घटनाओं को समझाने में सक्षम नहीं होता।

वैज्ञानिकों द्वारा ऐसा भी कहा जाता है कि ऐसा संभव है कि प्रकृति की सभी घटनाओं और प्रक्रियाओं को एक सीमित संख्या वाले एक मूलभूत नियम द्वारा निरूपित किया जा सकता है।परंतु विज्ञान का इतिहास इस बात का साक्षी है कि इसका विलोम ही सत्य है।

अतः हम कह सकते हैं कि सिद्धांत चाहे कितना भी व्यापक क्यों न हो उसकी सीमारेखा निश्चित रहती है और लाख प्रयत्न करने के बाद भी उसमें कुछ ऐसी बातें निकल आती हैं जो उस सीमारेखा के बाहर चली जाती हैं। और यहीं से उस सिद्धांत का निषेध होने लगता है और वैज्ञानिकों के मष्तिष्क में एक नया सृजन होने लगता है और पहले से अधिक व्यापक सिद्धांत आ जाता है।

यहां यह नहीं सोचना चाहिए कि नया सिद्धांत पुराने सिद्धांत को एकदम बेकार कर देगा। हकीकत तो यह है कि पुराना सिद्धांत उस परिधि में तथ्यों की कसौटी पर अड़ा रहता है और अपना महत्व बनाये रखता है। इसे विज्ञान की भाषा में अनुरूपता का सिद्धांत (Principle of Conformity) कहते हैं।
जो यह कहता है कि नया सिद्धांत आने से पुराना सिद्धांत बेकार नहीं होता बल्कि उसकी महत्ता पहले से अधिक बढ़ जाती है। पहली बात उसे लागू करने की सीमाएं अधिक स्पष्ट होकर उभरने लगती हैं जिससे उसकी विश्वसनीयता और बढ़ जाती है। दूसरी बात उसके महत्व की स्वयं की सत्यता के अलावा उससे अधिक व्यापक सिद्धांत का आधार मिल जाता है। जिसका वह विशिष्ट रूप होता है। इसलिए नए सिद्धांत की उत्पत्ति पुराने ज्ञान को नही पुराने भृमों को नकारती है।

जब क्लासिकल  भौतिकी का समय था तो ऐसा माना जाता था कि यांत्रिक नियम –संगतियां (Mecanical Law of Conformity)प्रकृति की सभी घटनाओं पर लागू  होती हैं । यह एक भ्रान्ति थी । आइंस्टीन के व्यापक सापेक्षिकता सिद्धांत (Genaral Theory of Relativity ) ने इसी भ्रान्ति पर चोट की न कि न्यूटन की यांत्रिकी (Newtonian Mechenics) पर । जहाँ तक न्यूटन की यांत्रिकी का सम्बन्ध है वह अपनी जगह पर रही बस आइंस्टीन ने उसकी लक्ष्मण रेखा निर्धारित कर दी । आइंस्टीन ने न्यूटन की यांत्रिकी की सीमारेखा खींच दी कि यह उन्हीं स्थितियों में सत्य है जब द्रव्यमान अपेक्षाकृत कम और वेग प्रकाश के वेग से बहुत कम हो।

मानलो हमारे पास दो वैज्ञानिक सिद्धांत हैं,इनमें एक विशिष्ट सिद्धांत है दूसरा व्यापक सिद्धांत है। तो विशिष्ट सिद्धांत का प्रयोग क्षेत्र सीमित होगा तथा वह व्यापक सिद्धांत के आगे टिक नहीं पायेगा।
  
                              



व्यापक सिद्धांत में नई नई राशियों का समावेश और नई नई अवधारणाओं का उपयोग होगा जो अधिक शुद्ध होगा। यदि कोई विशिष्ट सिद्धांत से व्यापक सिद्धांत के समीकरण प्राप्त करना चाहे तो यह सम्भव नहीं होगा क्योंकि विशिष्ट सिद्धांत के समीकरणों से व्यापक सिद्धांत के समीकरणों का अनुमान लगाना असम्भव होगा क्योंकि इसके लिए अधिक उच्च स्तर की समझ आवश्यक है एक दार्शनिक बुद्धि आवश्यक है। इतिहास की दृष्टि से कहें तो विशिष्ट से व्यापक सिद्धांत की ओर संकमण एक क्रांति है जो कभी कभी बिल्कुल पागल विचारों की मांग करती है ,आम आदमी की बुद्धि से परे है।

20 वीं सदी के प्रारम्भ में अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा प्रतिपादित सापेक्षिकता -सिद्धांत ने ब्रह्माण्ड के ज्यामितीय गुणों तथा अंतरिक्ष से सम्बंधित न्यूटन की धारणाओं को उलट कर रख दिया। आइंस्टीन की प्रतिभा इस बात में थी कि उन्होंने पदार्थ के गुणों और अंतरिक्ष (Space) की ज्यामिती के बीच एक आंतरिक सम्बन्ध स्थापित किया।आइंस्टीन के व्यापक सापेक्षिकता सिद्धांत के अनुसार गुरुत्वाकर्षण बल अंतरिक्ष (Space) के गुण के साथ अप्रत्यक्ष रूप से सम्बंधित होता है। कोई भी पिंड (Body) अंतरिक्ष(Space) में उस से प्रथक (Isolated)नहीं रह सकता ,उल्टा वह अंतरिक्ष की ज्यामिती (Geometry)को निर्धारित करता है ।


जब एक अमेरिकी पत्रकार ने  आइंस्टीन महोदय से अपने सिद्धांत को सरल भाषा में समझाने  का अनुरोध किया तो उन्होंने उत्तर दिया " पहले लोग सोचते थे कि यदि ब्रह्माण्ड से सारा पदार्थ  गायब हो जाये तो केवल अंतरिक्ष(Space) और समय (Time) बच जायेंगे ; व्यापक
सापेक्षिकता सिद्धांत कहता है अंतरिक्ष (Space) और समय(Time) भी गायब हो जायेंगे”।


विज्ञान सब कुछ जानता है और यह हर समस्या हल कर सकता है। इस मूर्खतापूर्ण  धारणा ने विज्ञान को ही नुक़सान पहुंचाया क्योंकि अंततः जिसे विज्ञान  नहीं जान पाया है उसकी खोज ही तो विज्ञान है।

हर प्रकार की तानाशाही की तरह विज्ञान की तानाशाही भी बुद्धि को बंद कर देती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब यह नहीं कि विज्ञान के नाम पर हर बात को मान लिया जाए । वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ है साधारण घटनाओं को देखने का नजरिया भी असाधारण हो।यही डॉ सीबी रमन को आज राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के दिन सही श्रद्धाजंलि होगी।

अवधेश पांडे
28 फरवरी 2019

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