भारत में संस्कृति का एक सूत्र वाक्य प्रचलित है ‘’तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ इसका अर्थ है अँधेरे से उजाले की ओर जाना। इस प्रक्रिया को सही अर्थों में पूर्ण करने के लिए शिक्षा, शिक्षक और समाज तीनों की बड़ी भूमिका है।
भारत प्राचीनकाल से ही शिक्षा और संस्कृति के मामले में बहुत समृद्ध रहा है। भारतीय समाज में जहाँ शिक्षा को समग्र विकास का साधन माना गया है, वहीं शिक्षक को समाज के समग्र व्यक्तित्व के विकास का अगुआ माना गया है।
भारत के महान शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जब सन् 1962 में देश के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाने की अपनी इच्छा उनके समक्ष प्रकट की। इस पर उन्होंने स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हुए अपनी अनुमति प्रदान की और तब से लेकर आज तक प्रत्येक 5 सितम्बर को “शिक्षक दिवस” के रूप में उनका जन्मदिन मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन के रुप में देखा और उनके अनुसार शिक्षक होने का अधिकारी वही व्यक्ति है, जो अन्य जनों से अधिक बुद्धिमान, सजग, व विनम्र हो। उनका कहना था कि उत्तम अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने विद्यार्थियों के प्रति व्यवहार व स्नेह उसे एक सुयोग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। शिक्षा मात्र ज्ञान को सूचित कर देना नहीं होती वरन् इसका उद्देश्य एक उत्तरदायी नागरिक का निर्माण करना है। शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले विद्यालय निश्चित ही ज्ञान के शोध केंद्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक होते हैं।
शिक्षा आयोग 1964-66 जो श्री दौलतसिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित किया गया था की रिपोर्ट इन शब्दों से प्रारंभ होती है ‘’ The destiny of india is being shaped in her classrooms.This we believe is no more rhetoric . In the world based on science and technology , it is education that determines the level of prosperity, welfare and security to the people . On the quality and number of persons coming out our schools and colleges will depend our success in the great interprise of national reconstracition…….
महर्षि अरविंदो ने शिक्षकों के सम्बन्ध में कहा कि ''शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में निर्मित करते हैं।' 'महर्षि अरविंद का मानना था कि किसी राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं। इस प्रकार एक विकसित, समृद्ध एवम् हर्षित राष्ट्र व विश्व के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है।
शिक्षक और समाज -
एक अच्छे विद्यालय में सफ़ल होने के लिए केवल अच्छी पढ़ाने की योग्यता वाले अच्छे शिक्षक ही नहीं बल्कि अच्छे सामाजिक परिवेश में पले बढ़े ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता भी होती है जो पूर्वाग्रहों से मुक्त हों तथा विज्ञान के नियमों के अनुसार विद्यार्थियों में वैज्ञानिक चेतना विकसित करें | शिक्षा का क्षेत्र एक ऐसा विशेष व स्वतंत्र क्षेत्र है, जिसके अपने ही विषय और अपने ही नियम हैं |
विद्यालय वह केन्दीय स्थान है जहां बच्चा समाज से आता है और ज्ञान लेकर समाज में ही जाता है | जब कोई अभिभावक अपने बच्चे को स्कूल लेकर आता है तो वह विद्यालय से यह स्वाभाविक अपेक्षा रखता है कि विद्यालय उनके बच्चे को वह सब सिखाये जो वे खुद घर पर बच्चे को नहीं दे पा रहे | शिक्षक को समाज की ओर से यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और शिक्षक का यह दायित्व भी है कि वो इस चुनौती को स्वीकार करे |
हर माता पिता अपने बच्चे को सुखी देखना चाहता है पर इस सुख का रहस्य हर माता पिता नहीं समझ पाते| मेरे विचार से सुख व्यक्ति और समाज के बीच एक सामंजस्य है और यह सामंजस्य एक दीर्घकालिक, कुशलतापूर्ण और व्यवस्थित लालन पालन के जरिये ही हासिल हो सकता है |
ऐसे मातापिता जो अपने बच्चे को केवल जन्म देकर शिक्षक बनने की कोशिश करते हैं वे घर के माहौल को अनावश्यक रूप से बोझिल करते रहते है | समाज में बहुत से मातापिता ऐसे हैं जो बच्चों को प्रतिदिन उलाहना देते रहते हैं कि
‘’ हमारा किसी ने लालन पालन नहीं किया लेकिन हम फिर भी अभावों में जिंदगी बिताकर पढ़े और आज हम सुखी और सभ्रांत जीवन जी रहे हैं | ऐसे माँ बाप यह भूल जाते हैं कि तेजी से बदलते इस वैज्ञानिक युग में हर चीज तेजी से बदल रही है और उन्हें मौखिक लफ्फाजी के बजाय अपने सोच को समय की मांग के अनुसार बदल लेना चाहिए, अपडेट कर लेना चाहिए |
अनुभवहीन माता पिता की एक और गलती करते हैं वे हर प्रकार के नैतिक प्रवचनों पर सीमा से ज्यादा भरोसा करते हैं | वे उन्मुक्त और असीम संभावना वाले अपने बच्चे को हर समय एक जंजीर से बांधे रखते हैं | बच्चे की किसी भी स्वाभाविक गतिविधि को सविस्तार और उबाऊ उपदेश द्वारा बाधित करते हैं परिणाम यह होता है कि बच्चे का स्वस्थ्य शरीर इस मौखिक उपदेश को बर्दाश्त नहीं कर पाता और अंततः उस जंजीर को तोड़ देता है |
माता पिता को यह जानना आवश्यक है कि सुखी कई तरीकों से रहा जा सकता है | घर में हर समय उपदेशात्मक भाषण देना दरअसल बच्चे को व्याकुल बनाना, उसे सताना, रुलाना, और वैज्ञानिक दृष्टि से उसे कूपमंडूक बनाना होता है |
विज्ञान के अनुसार बच्चे के लालन पालन की पहली शर्त है दैनिक जीवन का विवेक सम्मत सुनियोजित संगठन | परिवार एक जीवित सामाजिक संगठन होता है और इस संगठन की हर छोटी बड़ी खराबी बच्चे के लालन पालन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है |
एक पढ़े लिखे व्यक्ति को अपने खुद के सामान्य ढंग से बच्चों के लालन पालन की समस्या का नैतिक, दार्शनिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना चाहिए | परिवार जीवन का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है जहां मनुष्य सामाजिक जीवन में अपने पहले चरण रखता है यदि वे चरण सही व व्यवस्थित होंगे तो शिक्षा भी सही ढंग से चलेगी |
बच्चे और उसके उथल पुथल भरे परिवेश में कोई भी चीज किसी पूर्व गणना के अनुसार निर्धारित नहीं होती | शिक्षक का काम है कि वह पहले बच्चे और परिवेश के विकास को समझे, उसे दिशा दे, उसका उचितमार्गदर्शन करे |
धर्मनिरपेक्ष शिक्षा -
क्या हम आजादी के बाद देशभर में सभी स्कूली विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए संविधान की भावना के अनुरूप धर्मनिरपेक्ष, विविधतायुक्त भारतीय समाज को सही अर्थों में शिक्षित कर सके हैं ? 1989 में नई शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए गठित आचार्य राममूर्ति समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा ‘’ शिक्षा की प्राथमिकता तभी तय होगी जब समाज के सोच की प्राथमिकता शिक्षा हो | दुर्भाग्य से हमारे देश में अवसरजीवी व भाग्यजीवी समाज तो विद्यमान है परंतु चेतनजीवी और कर्मजीवी समाज का अभाव है |’’ मेरा मानना है कि हम उदारवादी लोकतंत्र के बुनियादी आदर्श - मूल्यों की विविधता, अच्छे समाज की विविध अवधारणाओं के लिए सहिष्णु वातावरण सुनिश्चित कर सके हैं या इनका का उल्लंघन किए बिना इस दिशा में कितनी दूर जा सके हैं या हमें कितनी दूर जाना चाहिए। यदि हमें भारतीय परम्परा की किसी बात पर वास्तव में गौरवान्वित महसूस करना है या उसे संजोकर रखना है तो वह देश भर के लोगों में व्याप्त जीवन की विविध शैलियों के प्रति उसकी सहिष्णुता है। सामाजिक विज्ञान के माध्यम से विविधतायुक्त शिक्षा-को बढ़ावा देने के लिए हमारे अतिरेक भरे जोश के द्वारा इस भावना का अवमूल्यन नहीं होना चाहिए।
जब हम सम्पूर्ण भारतीय समाज की बात करते हैं तो सामाजिक प्रथाओं और सामाजिक मूल्यों की विविधता के मुद्दे पर जोर दिया जाना चाहिए| भारत एक विविधतायुक्त जीवंत विराट समाज है जहाँ भाषाओं, धर्मों, जातियों, जनजातियों, सम्प्रदायों, की क्षेत्रीय स्तर व राष्ट्रीय स्तर पर बहुतायत है। इस विराट और जटिल समाज के किसी न किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुँचाए बगैर, एक ही प्रकार के मूल्यों को बढ़ावा देना या अच्छे समाज के बारे में केवल एक ही सांचे की वकालत करना, शायद कठिन काम है जिसे कोई भी प्रभावशाली व व्यवहारकुशल ढंग से निभा पाए।
अन्त में मैं उसी अवलोकन पर फिर से वापस आता हूँ जिसे मैंने शुरु में अच्छा नागरिक बनाने की शिक्षा में सामाजिक विज्ञान के शिक्षण का योगदान के रूप में वर्णित किया। अच्छे नागरिकों के निर्माण हेतु स्कूली छात्रों को शिक्षित करने के लिए सर्वप्रथम यह जरूरी है कि उन्हें सामाजिक व प्राकृतिक दुनिया के बारे में स्पष्टता से, व्यवस्थित ढंग से अपने खुद केसे मौलिक और वस्तुनिष्ठ तरीके से सोचने के लिये प्रोत्साहित किया जाए। इसके पहले सामाजिक विज्ञान में, यह जरूरी है कि उन्हें विभिन्न तरह की आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के बारे में इस ढंग से जानकारी और समझ दी जाए कि उत्साही शिक्षकों और पुस्तक लेखकों की पसन्दों और पूर्वाग्रहों के सामने, तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण गौण न हो जाएँ।
यदि हम मानते हैं कि विविधता हमारी सबसे बड़ी धरोहर है, तो हमें अपने विद्यार्थियों को इस विविधता में गहरी रुचि लेने उसे बनाये रखने और उसकी कीमत समझने और समझाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। शिक्षा के पेचीदे क्षेत्र में हमारे छात्रों को अपना जीवन जीने के तरीकों उनकी जाँच-परख करने का रुख विकसित करने और जीवन जीने के दूसरे तरीकों के प्रति सहिष्णु व उदार रवैया अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना ही सामाजिक विज्ञानों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान होगा।
नए दौर में तेजी से बदलते भारतीय परिवेश में एक शिक्षक को नए सिरे से चीजों को समझने और सीखने की जरूरत है। समाज को भी अध्यापक और उसकी जटिल भूमिका को नए सिरे से समझने की कोशिश करनी चाहिए। उनके साथ निरंतर संवाद और बात करना चाहिए और उनको सुनना चाहिए कि आखिर उनके मन में शिक्षा, समाज और आज के परिवेश को लेकर क्या हलचल हो रही है?
यदि समाज का हिस्सा होने के नाते हम शिक्षक की आलोचना करते हैं तो अच्छे काम के लिए उसकी तारीफ भी की जानी चाहिए। अगर हमें बच्चों के बेहतर सुनहरे भविष्य के सपने संजोते हैं तो हमें अध्यापकों के विचारों को भी जानने की कोशिश करनी चाहिए।यही शिक्षक को समाज का सच्चा सम्मान होगा और शिक्षक दिवस की सार्थकता होगी |
Nice sir
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