होली भारत का सबसे प्राचीन वैदिक त्यौहार है। होली मनाने के तौर तरीके भले बदल गए हों लेकिन इसका मूल रूप आपसी भाईचारे का है, वह नहीं बदला है।
इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस त्योहार का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी कृत पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र, नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है।
संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ, बिसाखदत्त और अन्य कई संस्कृत कवियों ने होली की खूब चर्चा की है।
चंदबरदाई द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो में होली का विस्तृत वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह प्रिय विषय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं। इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।
सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
अवध में होली
अवधी होली का वो सात्विक रंग, जो अवध किशोर के नाम से ही चमकने लगता है..और उसका तेज हमें बताता है कि राम जन-जन के मन-मन में हैं…कुछ इस तरह..
“आजु अवध के अवध किशोर,
सरयू जी के तीरे खेलैं होली”
यहाँ बात अवध की आ गई है, तो सहसा नाता अवध किशोर से जुड़ गया है.
अवध की होली को हम देखते हैं तो पाते हैं कि अवध में होली गीतों की एक बहुत समृद्ध परंपरा है.
ब्रज की होली
हम जब अवध से ब्रज में आते हैं तो देखते हैं कि… ब्रज की होली में आते-आते गीत बदल जाते हैं. भाव भी लेकिन उसमें छिपा आनंद कभी नहीं बदलता!
“फाग खेलन आए हैं नटवर नंद किशोर”
“आज विरज में होली रे रसिया”
“होली खेल रहे बांके बिहारी आज रंग बरस रहा”
यहाँ पता चलता है कि ब्रज में नवमी के दिन राधारानी के बुलावे पर नंदगांव के हुरियारे जहां बरसाना में होली खेलने जाते हैं, वहीं बरसाना के हुरियारे नंदगांव की हुरियारिनों से होली खेलने दशमी के दिन नंदगांव आते हैं. तब नंद चौक पर होली के रसिया गायन के बीच धमाधम लठमार होली होती है.
काशी की होली
अवध से ब्रज और ब्रज से काशी हम जैसे ही आतें हैं, हम पातें हैं कि होली का रंग फ़िर एक बार बदल गया है..राम और कृष्ण की जगह अब शिव ने ले लिया है.
शिव शंकर खेलत फाग
गौरा संग लिए..
खेले मसाने में होली दिगम्बर
खेले मसाने में होली..
अजबे बनल नवरंगा बनारस
अजबे बनल नवरंगा..
कहतें हैं..यहां होली फागुन शुक्ल एकादशी से शुरु हो जाती है, जिसे रंगभरी एकादशी और आमलकी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है.
इस तरह ये विविध रंग देखकर ये एहसास होता है कि आदमी कहीं का रहे किसी देश, प्रदेश, भाषा, रीति-रिवाज को मानें… लेकिन आनंद और सुख महसूसने की जो भाषा है वो बस एक ही है.
मुगलकाल में होली
मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है की होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं कई मुसलमान भी मनाते हैं।
प्राचीन काल में अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे।
जहाँगीर के समय में महफि़ल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। इस अवसर पर राज्य के साधारण नागरिक बादशाह पर रंग डालने के अधिकारी होते थे। शाहजहाँ होली को ईद गुलाबी के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह जफर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएं आज तक सराही जाती हैं। बादशाह का आम जनता के साथ इस मौके पर खूब मिलना-जुलना होता। जफर ने इस मौके के लिए एक गीत भी लिखा था।
क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी
देख कुंवरजी दूंगी गारी
भाज सकूं मैं कैसे मोसो भाजो नहीं जात
थांडे अब देखूं मैं बाको कौन जो सम्मुख आत
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने देऊं
आज मैं फगवा ता सौ कान्हा फेंटा पकड़ कर लेऊं
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी
19वीं सदी के मध्य में दिल्ली में हुए एक बुद्धिजीवी मुंशी ज़काउल्ला ने अपनी किताब तहरीक-ए-हिंदुस्तानी में तो इस तथ्य पर ही सवाल उठाया है कि होली हिंदुओं का त्यौहार है. उसके मुताबिक मुगल सल्तनत के दिनों में होली का जश्न कई दिनों तक चलता था. जाति, वर्ग और धर्म की कोई बंदिश नहीं थी और गरीब से गरीब भी बादशाह पर रंग फेंक सकता था.मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है की होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं कई मुसलमान भी मनाते हैं।
प्राचीन काल में अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे।
जहाँगीर के समय में महफि़ल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम आयोजित होता था। इस अवसर पर राज्य के साधारण नागरिक बादशाह पर रंग डालने के अधिकारी होते थे। शाहजहाँ होली को ईद गुलाबी के रूप में धूमधाम से मनाता था। बहादुरशाह जफर होली खेलने के बहुत शौकीन थे और होली को लेकर उनकी सरस काव्य रचनाएं आज तक सराही जाती हैं। बादशाह का आम जनता के साथ इस मौके पर खूब मिलना-जुलना होता। जफर ने इस मौके के लिए एक गीत भी लिखा था।
क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी
देख कुंवरजी दूंगी गारी
भाज सकूं मैं कैसे मोसो भाजो नहीं जात
थांडे अब देखूं मैं बाको कौन जो सम्मुख आत
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने देऊं
आज मैं फगवा ता सौ कान्हा फेंटा पकड़ कर लेऊं
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी
यह बात खत्म करने के लिए गौहर जान के इन शब्दों से बेहतर शायद ही कोई बात हो
मेरे हजरत ने मदीने में मनाई होली
वसेीर बद्र के शब्दों मैं
सात संदूकों में भरकर दफ्न कर दू नफरतें,
आज इंसा को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत ...
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो ना
जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए ..
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