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भारतीय सौंदर्यभाव को वेलेंटाइन डे से डर क्यों?




भारतीय सौन्दर्यभाव  को वैलेंटाइन डे से डर क्यों?



आज वैलेंटाइन डे है। इस पर वाद-विवाद करना मेरा ध्येय नहीं औऱ न इसके औचित्य को सही या गलत ठहराने की मंशा है। इस दिन को लेकर भारतीय समाज दो भागों में बंटा हुआ दिखता है। कुछ संगठन संस्कृति के ठेकेदार बनकर इसे 'भारतीय संस्कृति' पर हमला बताते हैं तो कुछ युवा पीढ़ी के लोग इसे एक स्वाभाविक आकर्षण का मानते हैं। क्या इस प्रकार के उत्सव भारतीय संस्कृति पर हमला है? क्या युवा सौंदर्यबोध के प्रति भारतीय समाज कभी इतना असहज रहा है?  उत्तर अगर हां है तो इसकी पड़ताल होनी चाहिए और नहीं है तो इतना बबेला क्यों? वैलेंटाइन डे से भारतीय समाज की घबराहट क्या ऐसे उत्सवों के प्रति हमारी अनुदारता प्रदर्शित करती है या इसके मूल में किसी संगठन की कोई कुंठा है। प्राचीन भारतीय साहित्य इस बात का गवाह है कि हमारा देश कभी 'बंद' समाज नहीं रहा है और अलग अलग प्राचीन इतिहास के साहित्य में युवा-युवतियों को खुलकर मिलने जुलने और प्रेम अभिव्यक्ति करने के कई प्रसंग दिखते हैं। प्राचीन भारत में ऐसा कोई उपलब्ध सामाजिक-सांस्कृतिक फॉर्मेट नहीं था जिसे पूरे समाज ने प्रेम या सौंदर्यबोध के सम्बन्ध में अस्वीकार किया हो या उस दौर में ऐसा प्रदर्शन करने पर किसी से मारपीट की गई हो।


वैदिक ऋचाओं से प्राचीन भारत की जो तस्वीर सामने आती है वह यह है कि भारत के लोग बड़े मस्त, जीवंत, और अद्भुत युवा सौंदर्यबोध से भरे पड़े थे जिनमे दैहिक संकीर्णता या अनुदारता लेशमात्र नहीं थी।

आचार्य क्षितिमोहन सेन ने अपनी पुस्तक संस्कृति संगम में स्कंद पुराण, लिंगपुराण, कूर्म पुराण का हवाला देकर लिखा है-
महादेव नग्न वेश में नवीन तापस का रूप धारण कर मुनियों के तपोवन में आये। मुनि पत्नीगण ने काममोहित होकर उन्हें घेर लिया। मुनि गण यह देखकर क्षोभ से भर जाते हैं और काष्ठ के पाषाण लेकर उनपर मुष्टिप्रहार करते हैं और महादेव के पीछे दौड़ते हैं।

क्षोभं विलोक्य मुनयः आश्रमे तु स्वयोषिताम।
हन्यतामिति सँभाष्य काष्ठ पाषाण पाण्यम ।।

                         (वामन पुराण अध्याय 43 श्लोक 70)

आचार्य क्षितिमोहन सेन लिखते हैं ‘’ मुनिगण अपनी पत्नियों को शिव से अलग रखना चाहते थे परंतु वे सफल होते नहीं दिखते। मुनि पत्नियों का शिव और शिवलिंग पूजा का यह उत्साह पुराणों के अनुसार उनकी कामुकता है पर अधिक युक्तिसंगत व्याख्या यह हो सकती है कि अधिकतर मुनि पत्नियां आर्येत्तर शूद्र कुलोत्पन्न थीं इसलिए वे अपने पितृ कुलदेवता की पूजा करने के लिए व्याकुल रहती थीं।‘’

वैदिक काल में एक प्रकार के उत्सव  का जिक्र आता है उसमें स्त्री-पुरुष दोनों इकट्ठे होते थे, उसे 'समन' कहते थे. यह एक लोकप्रिय उत्सव था जहां स्त्रियां युवकों के साथ आनंद के लिए आती थीं। यह  उत्सव पूरी रात चलता था।

मदनोत्सव में दोपहर के बाद सारा नगर मदहोश हो जाता था। नगर की कामिनियां मधुपान करके ऐसी मतवाली हो जाती थीं कि सामने जो कोई पुरुष पड़ता, उस पर पिचकारी से जल की बौछार कर अपने उन्मुक्त प्रेम का प्रदर्शन करतीं थीं। 'क्या वे  प्राचीन युवतियां 'संस्कृति-विरोधी' थीं? संभव हो कि वे संस्कृति विरोधी रही हों  इसमें कोई आपत्ति नहीं होना भी चाहिए। अंततः उन्ही ने  संस्कृतियों को बनाया और  मिटाया ।
                   

 हर्षवर्धन ने अपनी पुस्तक 'रत्नावली' में युवतियों के परस्पर सम्मिलन के ऐसे कई ब्योरे दिए हैं जिन्हें पढ़कर पता चलता है कि उस समय भारतीय संस्कृति इस देश और समाज के लिए कितने व्यापक और मुक्त हृदय की विषयवस्तु रही होगी।

               

भवभूति कृत 'मालती माधव' से ज्ञात होता  है कि समाज  के हर वर्ग के लोग इन उत्सवों को कितनी उन्मुक्तता से मनाते थे।

इस देश का इतिहास ऐसे अनेक उद्धरणों से भरा पड़ा है जहां दैहिक प्रेम अनुभूतियों का प्रस्फुटन साहित्य और शिल्प दोनों में ही हुआ है।

            

खजुराहो के शिल्पियों को कौन भूला सकता है. यह अनायास ही प्रश्न  उठता है कि क्या अपने युग में उन  साहसी शिल्पियों को  सृजन के वे जोखिम उठाने पड़े होंगे जो वर्तमान में कलाकार व साहित्यकार उठा रहे हैं? प्रश्न उठता है कि क्या 'गीतगोविन्द' के रचयिता जयदेव ने  राधा  और कृष्ण के उन्मुक्त रति-चित्रण करते हुए किसी तरह के सामाजिक और सांस्थानिक प्रतिरोध का सामना किया होगा? क्या वह हमलों के शिकार हुए थे? इतिहास में इस तथ्य का कोई उल्लेख नहीं है।

          

उन दिनों भारतीय जीवन घेरों में बंद नहीं था और न हीं तत्कालीन समाज में जड़ता या  गतिहीनता  जैसी  कोई  बात थी । उस समय एक छोर से दूसरे छोर तक  समग्र भारतवर्ष में सांस्कृतिक  उत्साह  भी लहरें ले  रहा था। इसी  समय दक्षिण भारत के लोग दक्षिण पूर्व एशिया की ओर गए और वहां अपने उपनिवेश स्थापित किये दक्षिण से ही बौद्धमत का सन्देश लेकरबोधि- धर्म चीन पहुंचा। सम्राट अशोक के पुत्र  महेंद्र बर्मन  व पुत्री,  संघमित्रा बौद्धधर्म का सन्देश श्रीलंका ले गए। 

इसके बाद आने वाला समय पतन की प्रक्रिया का समय है यहाँ आकर हमारे विचार  पुराने विचारों की  आवृति  बन जाते हैं और कारयत्री शक्ति दिनो-दिन क्षीण होने  लगती है। शरीर व मन की साहसिकता से हम भय खाने लगते हैं  तथा  जाति-प्रथा  के असंख्य रूपों  का विकास  होने  लगता  है  एवं समाज के दरवाजे चारों और से बंद हो जाते हैं। भारत  का  मन शास्त्रों  के कपट जाल में उलझ  जाता  है  और  वह  यह मानने लगता है  कि अस्पृष्यता ही धर्म है, समुद्र  के पार  नहीं जाना ही धर्म है तथा शास्त्रों की गूढ़ बातों को स्त्रियों औरशूद्रों से छिपाए रखना ही धर्म है।

भारत में इस्लाम के आगमन ने हिंदुत्व को कोई दार्शनिक उड़ान नहीं दी, नए भाव और नए विचार नहीं दिये किन्तु भारतीय साहित्य के भावुकता पक्ष को जरूर गति प्रदान की। इसका एक उदाहरण एक सूफी संत खुसरो थे जिन्होंने श्रृंगार में एक आनन्द का संचार किया-

गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केश।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई सब देश।।

कबीर ने प्रेम की बेचैनी और विरह की आतुरता  जो वर्णन किया उससे हिंदी साहित्य में एक नई भावुकता जन्मी। उन्होंने परमात्मा को अपना पति मानकर विरह और मिलन की बेचैनी को अपने काव्य में इस प्रकार वर्णित किया-

सोवों तो सपने मिलें, जागों तो मन माहिं।
लोचन राता सुधि हरी, बिछुरत कबहुँ नाहिं।
लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात।
दूल्हा दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बरात।
नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
पलकों की चित डार के पिया को लिया रिझाय।
चूड़ी पटकों पलंग से, चोली लावों आगि।
जा कारन यह तन धरा, ना सूती गर लागि।

भारतीय भावुकता को कबीर ने इस्लामी भावुकता से मिश्रित कर जो प्रेम और विरह की धारा चलाई वही आगे चलकर महादेवी वर्मा के मुख से निकली-

अंखियन तो झाईं पड़ी, पंथ निहार निहार।
जिव्हा तो छाला पड़ा, नाम पुकार पुकार।
कै विरहन को मींच दे, कै आपा दिखराय।
आठ पहर को दाझना, मो पै सहा न जाय।।

नर नारी के सौंदर्यबोध को अगर सूफी संत उतने जोर से नहीं चलाते तो हिंदी साहित्य में सौंदर्य का गहरा भाव नहीं दिखता। सूफियों ने इश्क मिजाजी को इश्क हकीकी का सोपान बताया।

बिहारी के समकालीन उर्दू कवि बली कहते हैं-

शगल बेहतर है इश्कबाजी का
क्या हकीकी व क्या मजाजी का।।

हिंदी कवि दादू ने भी मध्यकाल में इसी परंपरा को बढ़ाया-

पुरुष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग।
जें जें जैसी ताहि सों, खेलें तिस ही रंग।।

वेलेंटाइन का दिन शायद बसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक हो।
कविवर पद्माकर बसंत पर कहते हैं

कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में।
क्यारिन में कलिन में कलीन किलकंत है।।
कहे पद्माकर परागन में पौनहू में।
पानन में पीक में पलासन पगंत है।।
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में।
देखौ दीप-दीपन में दीपत दिगंत है।।
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में।
बनन में बागन में बगरयो बसंत है...।।

संस्कृति कोई जड़ नहीं अपितु जीवंत भाव है। यह भाव किसी भी दौर में वह जड़ नहीं रहा। हर दौर में साहित्यकारों,कवियों और दार्शनिकों  ने तत्कालीन 'सौंदर्य बोध' को अपने अपने ढंग से प्रदर्शित किया है। किसी पक्ष पर हमलावर होकर संस्कृति की रक्षा करने का कोई उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता जिनसे 'संस्कृति प्रेमी' प्रायः प्रेरणा लेने की बात करते  हैं। लोक और पारलौकिक जीवन के इन दोनों प्रारूपों को भारतीय संस्कृति ने बराबर स्थान प्रदान किया है। इसमें लौकिक और अलौकिक दोनों का  बराबर स्थान है। लोगों को खुद अपनी जिन्दगी दो, जो जैसे जीना चाहता है उसे निरापद जीने दो।

अवधेेेश पांडे
14 फरवरी 2020



Comments

  1. Bahut badhiya sir apka lekh bahut yuktisangat hai Pramanik hai

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    1. धन्यवाद क्या मैं आपका शुभ नाम जान सकता हूँ?

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