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गांधीजी की जिंदगी का आखिरी महीना

गांधी की जिंदगी का आखिरी महीना : अवधेश पांडे
 
         



मुझे प्रायः लगता है कि हमें   व्यक्तिओं को याद करना है तो हमें  व्यक्तिओं के उस दिन से याद करना चाहिए जिस दिन से उन पर रोशनी पड़ती है | उनके जीवन का कोई पक्ष प्रकाशित होता है |

अगर हमें गांधी की जिंदगी में कोई ऐसा दिन चुनना हो जो फ्लड लाइट हो अर्थात जिस दिन उनके जीवन का प्रत्येक पक्ष प्रकाशित हो उठता है, तो वह दिन है 30 जनवरी 1948 |

 उस दिन से गांधी के जीवन का पूरा अर्थ समझ में आता है | और प्रायः लोगों के साथ ऐसा होता है कि उनके जन्म से नहीं उनकी मृत्यु से और मृत्यु के तरीके से हम उनके जीवन का पूरा अर्थ समझ पाते हैं | वो क्यों जिये ये उनकी मौत से पता चलता है | और गांधी की मौत पर विचार करते हुए हमें उनकी जिंदगी के मायने समझ में आते हैं |



गांधी की मृत्यु के बाद उन्हें याद करते हुए उनके प्रिय शिष्य जवाहरलाल नेहरू ने लिखा

‘’यह एक महाकाव्यात्मक जीवन का महाकाव्यात्मक अंत था।
 it was  an epic end of epic life.
गांधी का जीवन घटनापूर्ण और नाटकीय था शायद ही उनकी जिंदगी का कोई ऐसा दौर रहा हो जिसे हम समतल कह सकें | फिर  यह कैसे मुमकिन था कि गांधी की मौत एक साधारण मौत हो बिस्तर में, बुढापे से, बीमारी से और जर्जर होकर एक बूढ़े आदमी की मौत, गांधी की मौत को भी नाटकीय ही होना था | एक नाटकीय जीवन का नाटकीय अंत |’’

नेहरू, जिनको गांधी ने अपने जीवनकाल में अपना उत्तराधिकारी चुना। उनकी समझ थी कि उनके नहीं रहने के बाद नेहरू उनकी ही भाषा बोलेंगे | और इस पर विचार करते हुए हमें यह सोचना पड़ेगा कि गांधी आखिर किस भाषा की बात कर रहे थे| वह कौन सी भाषा चाहते थे जिसे नेहरू बोलें और उनके देशवासी बोलें | किस भाषा का अभ्यास गांधी जिंदगी भर करते रहे और उसका अभ्यास करते हुए वे किस भाषा से लड़ते रहे |

तात्कालीन वायसराय लार्ड माउन्ट बेटन ने गांधी जी की हत्या पर लिखा था--

'' ब्रिटिश हुकुमत अपने काल पर्यन्त कलंक से बच गई , आपकी हत्या आपके देश आपके राज्य आपके लोगों ने की है " यदि इतिहास आपका निष्पक्ष मूल्यांकन कर सका तो वो आपको ईसा और बुद्ध की कोटि में रखेगा । कोई कौम इतनी कृतघ्न और खुदगर्ज कैसे हो सकती है जो अपने पिता तुल्य मार्गदर्शक की छाती छलनी कर दे । ये तो नृशंस बर्बर नरबक्षी कबीलों में
भी नहीं होता है, और उस पर निर्लज्जता ये कि हमें इस कृत्य का अफसोस तक नहीं है ।''


गांधी की जीवन लीला 30 जनवरी को समाप्त हुई या यूं कहें कि गांधी 30 जनवरी का इंतजार कर रहे थे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे | गांधी धीरे-धीरे 30 जनवरी की ओर बढ़ रहे थे | गांधी जो कर रहे थे उसकी परिणिती यही होना थी इससे भिन्न नहीं |गांधी कोई आत्महत्या नहीं कर रहे थे परंतु वे जो कर रहे थे उससे वे अपने कदम पीछे नही खींचना चाहते थे | इसीलिए मैंने कहा कि गांधी का अगर कोई दूसरा नाम है तो वह निर्भयता है| गांधी ने इस बात को कई बार कहा कि ‘’असल चीज है निर्भयता का अभ्यास, निडरता का अभ्यास और अगर हम अपने जीवन में निर्भयता का अभ्यास नहीं करते तो हम अपना जीवन अपने सिद्धांतों के अनुसार जी नहीं सकते| निर्भयता के लिए आवश्यक है मृत्यु के भय से मुक्ति |’’

हम सभी जानते हैं कि जब 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी का जश्न मनाया जा रहा था गांधी दिल्ली में नहीं थे | ये उनकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दिन हो सकता था क्योंकि विश्व के सबसे ताकतवर साम्राज्य को उन्होंने अहिंसक गोलबंदी द्वारा झुकाया था परंतु गांधी इस जश्न में शामिल नहीं हुए ,वे दिल्ली से बहुत दूर नोआखाली में थे जो अब बांगादेश में है |



नोआखाली एक मुस्लिम बहुल इलाका वहां हिंदुओं को मारा जा रहा था | गांधीजी को बंगाल सरकार ने बुलाया था इस खुरेन्जी को रोकने के लिए |कुछ कांग्रेसी नेता चिंतित थे कि बहसी दरिंदों के बीच बापू का जाना ठीक नहीं | अक्टूबर के आखिर में दिल्ली से कूच करते वक्त बापू ने इन चिंतित लोगों से कहा, 'मेरी अहिंसा लूले-लंगड़े की असहाय अहिंसा नहीं है. मेरी जीवंत अहिंसा की यह अग्निपरीक्षा है. अगर हुआ तो मर जाऊंगा, लेकिन वापस नहीं लौटूंगा.'


महात्मा गांधी ने नोआखाली पहुंचकर अकेले ही पीड़ित गांवों का पैदल भ्रमण करना शुरू कर दिया. इस यात्रा के दौरान उन्होंने चप्पल पहनना भी छोड़ दिया. उन्हें लगता था कि नोआखाली एक श्मशान भूमि है, जहां हजारों आदमियों की मजार बनी है. ऐसी मजार पर चप्पल पहनकर चलना उन मृत आत्माओं का अपमान करना है.

उन्होंने गांव गांव पैदल पैदल चलकर लोगों को समझाया कि वे पागलपन छोड़ दें और हथियार डाल दें |

वे अनिश्चित कालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए |गांधी जी की दुविधा देखते हुए नोआखाली के पुलिस अधीक्षक श्री अब्दुल्ला ने वादा किया 'आपके रहते दंगे नहीं होंगे.' बापू ने कहा, 'तब ठीक है, अगर अब दंगे हुए तो गांधी तुम्हारे दरवाजे पर मर जाएगा.' अब्दुल्ला गांधी जी का मनतव्य समझ गए और कहा, ‘‘मेरे जीते जी दंगे नहीं होंगे.’’ गांधी जी अब संतुष्ट थे. पांच महीने नोआखाली में रहने के बाद वे बिहार के लिए रवाना हो गए.

बिहार की कौमी आग (5 मार्च, 1947 से 48 तक)

5 मार्च, 1947 को गांधी जी बिहार पहुंच गए. वहीं बिहार जहां 1916 में उन्होंने चंपारण में आंदोलन शुरू किया था. यही तो वह भूमि थी जिसने मोहनदास गांधी को महात्मा गांधी बनाया था. आज उसी बिहार को नोआखाली और कलकत्ता में अपने हिंदू परिजनों की हत्या ने उकसा दिया था. समाचार पत्र आग में घी की तरह काम कर रहे थे. ‘नोआखाली और बंगाल का हत्याकांड देश के पुरुषत्व पर लांछन है.’ ऐसा समाचार पत्रों का सार था.

कलकत्ता का चमत्कारी उपवास (9 अगस्त से 9 सितंबर, 1947)

कलकत्ता की स्थिति बहुत गंभीर थी. वहां की गलियों और घरों में हिंदू-मुसलमानों ने सशस्त्र मोर्चे संभाल रखे थे. गांधी जी ने कलकत्ता की गलियों का दौरा शुरू कर दिया.

जैसे-तैसे शांति स्थापित हो गई. 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता दिवस सौहार्दपूर्ण माहौल में मनाया गया. लेकिन यह शांति अस्थायी थी, ऐसा लगता है जैसे स्वाधीनता दिवस पर राष्ट्रपिता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने थोड़ी गम खा ली थी. 27 अगस्त तक पंजाब और सिंध से आने वाले हिंसा के समाचारों ने कलकत्ता में भी सांप्रदायिक उफान ला दिया. ऊपर से छाई हुई नकली शांति का गुब्बारा फूट गया. घटनाक्रम किसी तूफान की गति से आगे बढ़ा. पर अब 78 साल के बुढ़े गांधी के पास सिर्फ अपनी देह बची थी, जिसे वे दांव पर लगा सकते थे.

 एक सितंबर को महात्मा ने आमरण उपवास का निर्णय कर लिया. आजाद भारत में गांधी का यह पहला उपवास था. माउंटबेल के प्रेस सलाहकार एलन कैंपबेल जॉनसन ने इस उपवास के बारे में लिखा, ‘गांधी के उपवास में लोगों के अंतर्मन को झकझोर देने की कैसी अद्भुत शक्ति है, इसे तो सिर्फ ‘गांधी उपवास का साक्षी ही समझ सकता है.’ उपवास का चमत्कारी प्रभाव पड़ा.
माउंटबेटन ने कहा था

 ‘’ हमारी 50 हजार सेना की बटालियन पंजाब में वो काम नहीं कर पाई जो काम बंगाल में एक वन मेन बटालियन ने किया और मैं उस वन मेन बटालियन के आगे नतमस्तक हूँ उस वन मेन बटालियन का नाम है मोहनदास करमचंद गांधी|''



बदहाल दिल्ली में आखिरी उपवास (9 सितंबर 1947 से 30 जनवरी 1948 तक)
9 सितंबर को बापू दिल्ली पहुंच गए. सरदार पटेल और राजकुमारी अम्रत कौर उन्हें लेने स्टेशन पर आए थे. दिल्ली सुलग रही है


हमेशा की तरह वे दिल्ली में हरिजन बस्ती में रुकना चाहते थे पर दिल्ली शरणार्थियों से भरी पड़ी थी इसलिए गांधी को बिड़ला हाउस ले जाया गया जिसे आज गांधी स्मारक कहा जाता है|



 9 सितम्बर 1947 को गांधी ने दिल्ली आकर  गली गली  और दिल्ली के आसपास के इलाकों में शांति स्थापित करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी |दिल्ली में उन्होंने लगभग हर सभा में एक दिलचस्प बात कही कि

 '' कहीं बेहतर है कि आप खुद अपनी गलतियों को दुनियां को बड़ा करके बताएं, बजाय इसके कि दुनिया आप पर उंगली उठाने लगे| हमारा तरीका यह होता है कि  हम अपनी गलतियों को  छिपाते हैं उन्हें कम करके दिखाते हैं | हम यह कहना चाहते हैं कि दरअसल हमने हत्या नहीं की थी हमें उकसा दिया गया था | दरअसल  हम हिंसक नहीं हैं हमें दूसरों ने उकसा दिया था जिससे हम हिंसा कर बैठे | यही संबंध बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक के बीच होता है | जिसमें बहुसंख्या जब अल्प संख्या पर हमला करती है तो वह अल्प संख्या पर ही आरोप लगाती है कि उसने इस हालत में पहुंचा दिया कि हम हिंसा कर बैठे |''

यह अपील करते हुए गांधी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में घूमते रहे  और इसी बीच 2 अक्टूबर आया। 2 अक्टूबर 1947  और गांधी को बधाईयों का और ग्रीटिंग्स कार्ड्स का, फूलों का सिलसिला शुरू हो गया।

लेडी ओर लार्ड माउंटबेटन गांधी के पास पहुंचे और गांधी को बधाई दी
गांधी ने पूछा आज मुझे बधाइयां दी जा रहीं हैं क्यों ? क्या इससे बेहतर यह नहीं कि मुझे शोक संदेश भेजा जाए? गांधी ने यह कहा कि आज में यह कह सकता हूँ कि आज मैंने 125 वर्ष जीने की इच्छा छोड़ दी और अब मैं अधिक नहीं जीना चाहता। क्योंकि कभी समय था कि भारत मेरी अवाज सुना करता था लेकिन अब मेरी आवाज लगता है कि जंगल में कोई  चीख़ है मेरी आवाज कोई नहीं सुन रहा और कोई उसका जवाब नहीं दे रहा ।

इस दिन को दिल्ली में एक सभा हुई। इस सभा को नेहरू ने संबोधित किया क्योंकि यह आजादी के बाद गांधी का पहला जन्मदिन था | नेहरू ने लोगो विशेषकर हिन्दुओं  कहा कि वो ये नहीं कर सकते कि वे गांधी जी की जय का नारा लगायें और दूसरी ओर मुसलमानों को देश से जाने के लिए भी कहें | ये दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते, ये धोखाधड़ी है इससे तो बेहतर है कि वे गांधी की जय का नारा लगाना बन्द कर दें |

गांधी को विदेशों से भी टेलीग्राम मिले गांधी के यह कहने पर कि वे 125 वर्ष नहीं जीना चाहते उन्हें एक फ्रांसीसी मित्र ने लिखा

 ‘‘गांधी को इतना निराश नहीं होना चाहिए उन्हें 125 वर्ष जीना ही चाहिए क्योंकि वे जितना जिएंगे ईश्वर ने उन्हें जो काम सुपुर्द किया है, जिसके लिए ईश्वर ने उन्हें अपना साधन बनाया है वह काम पूरा होगा ।‘’

गांधी ने इसके जवाब में लिखा-


 ‘’यह कहना शायद गलत है कि अभी मेरी जो मानसिक अवस्था है वह डिप्रेशन की है | मैंने बस एक तथ्य आपके सामने बयान किया है। मैं इतना वेवकूफ नहीं हूं कि यह मान लूं कि यह दैवीय इच्छा मेरे जरिये ही पूरी होगी | हो सकता है कि मुझ से बेहतर उपकरण की तलाश हो रही हो जो इस दैवीय इच्छा को पूरा कर सके | और शायद मैं इतना ही ठीक था कि मैं एक कमजोर राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सकूं ताकतवर राष्ट्र का नहीं | हो सकता है एक ज्यादा शुद्ध, एक ज्यादा बहादुर, एक ज्यादा दूरदर्शी व्यक्ति की आवश्यकता है जो इस अंतिम उद्देश्य को पूरा कर सके |लेकिन यह सब कुछ अनुमान है | भगवान पर फैसला करने का अधिकार किसी को नहीं है और इसलिए मैंने एक धृष्टता की थी कि मैं 125 वर्ष जीऊंगा तो आज मुझमें यह विनम्रता भी होनी चाहिए कि हालात बदल गए हैं और मैं इस इच्छा का सार्वजनिक रूप से त्याग करता हूँ |मैंने कुछ भी ज्यादा नहीं किया है और कुछ भी कम नहीं किया है | यह किसी डिप्रेशन की हालत में किया जाने वाला फैसला नहीं है जो ज्यादा उपयुक्त शब्द है वह असहायता का है | मैं लाचार हूं और इसलिए मैं उस सर्वशक्तिमान का आव्हान करता हूँ कि वह मुझे आंसुओं की इस घाटी से दूर ले जाय जो अब भारतवर्ष बन गया है |अगर भारत आजाद हालत में अपने आप को एक नहीं  पाया और बिखर गया  अगर भारत ने आजाद होने के बाद गुलामी की हालत में नहीं जब वह खुद मुख्तार हो गया सारी ताकत उंसके हाथ में आ गयी तब उसने सबसे ज्यादा पशुता का परिचय दिया तो इसका अर्थ है कि दुनिया में अब कोई उम्मीद बची नहीं |’’


दिल्ली की हालत सुधर नहीं रही थी इस पर उन्होंने अपने मित्र से कहा कि अगर दिल्ली हाथ से निकल गयी तो पूरा देश हाथ से निकल जायेगा और अगर देश हाथ से निकल गया तो दुनिया को बचाना असंभव है | इसलिए उन्होंने 12 जनवरी को अनिश्चितकालीन उपवास पर जाने का फैसला किया |जब उन्होंने उपवास पर जाने का फैसला किया तो उनके पुत्र देवदास गांधी ने उनको चिट्ठी लिखी

''आपने यह जो उपवास शुरू किया है इसके खिलाफ मेरे पास कहने को बहुत कुछ है |।मेरी जो मुख्य चिंता है मेरा जो मुख्य तर्क है आपके उपवास के खिलाफ वह यह है कि आखिर आपने अधीरता के आगे हथियार डाल दिए हालांकि माना यह जाता है कि आप अनन्त धैर्य के प्रतीक हैं आप धैर्य कभी नहीं छोड़ते लेकिन इस उपवास से यह पता चलता है कि आखिरकार आप अधीर हो गए हैं | आप को शायद इस बात का अन्दाज नहीँ कि आपने अपने अथक और धैर्यपूर्ण परिश्रम से कितनी बड़ी सफलता हासिल की है|''

गांधी ने जो उत्तर अपने पुत्र देवदास गांधी को लिखा वो भी बड़ा दिलचस्प है -


"I am not prepared to concede that my decision to undertake the fast was hasty. It was quick, no doubt, so far as the drafting of the statement was concerned. Behind the lightning quickness was my four days' heart- searching and prayer. Therefore, it cannot be dubbed as 'hasty', in any sense of the term. "I did not need to hear any arguments as to the propriety of the fast. The fact that I did listen to any arguments, only bespeaks my patience and humility. "Your worry, as well as your argument, are of no use. You, of course, are my friend and a high-minded friend at that. Your concern is natural and I esteem it, but your argument betrays impatience and superficial thinking. I regard this step of mine as the last word on patience. Would you regard patience that kills its very object, as patience or folly? "I cannot take any credit for the results that have been achieved since my coming to Delhi. It would be self-delusion on my part to do so. Mere man cannot judge as to how many lives were really saved by my labours. Only the Omniscient God can do that. Does it not betray sheer ignorance to attribute sudden loss of patience to one who has been patience personified since September last? "It was only when, in terms of human effort, I had exhausted all resources and realized my utter helplessness, that I put my head on God's lap. That is the inner meaning and the significance of my fast. If you read and ponder over the epic of Gajendra Moksha, you will be able to appraise my step. "The last sentence of your note is a charming token of your affection. But your affection is rooted in ignorance or attachment. Ignorance does not cease to be ignorance because of its repetition among persons, no matter how numerous they are.

So long as we hug life and death, it is idle to claim that it must be preserved for a certain cause. 'Strive while you live' is a beautiful saying, but there is a hiatus in it. Striving has to be in the spirit of detachment. "Now you will understand why I cannot accept your counsel. God sent me the fast. He alone will end it,''

महात्मा गांधी का यह उपवास आजाद भारत की सबसे बड़ी घटना है. इस उपवास का प्रत्येक दिन अपने आप में युगांतकारी था. कुल छह दिन चले इस उपवास ने ही वास्तव में आज के अखंड और मजबूत भारत की नींव डाली थी.

उपवास का पहला दिन हिंदू शरणार्थी गांधी जी के इस निर्णय से कुपित हो उठे. बिड़ला हाउस के बाहर सिखों की भीड़ ने नारे लगाए- ‘खून का बदला खून से’ ‘गांधी को मर जाने दो.’ दरअसल सिख इस उपवास को मुस्लिम तुष्टीकरण का औजार मान रहे थे.

उपवास का दूसरा दिन गांधी ने अपनी प्रार्थना सभा में पाकिस्तानियों के लिए संदेश दिया, ‘अगर हिंदुओं का नरसंहार न रुका तो दस गांधी मिलकर भी मुसलमान को बचा नहीं पाएंगे.’

उपवास का तीसरा दिन भारत सरकार ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने का निर्णय किया.क्योंकि यह राष्ट्रों की संपत्ति का बटबारा था जो भारत को देना ही था |यह पाकिस्तान की देनदारी थी | एक वचन था जो पूरा करना था |

 शरणार्थियों के कई समूहों ने आकर बापू से व्रत भंग करने की प्रार्थना की. गांधी जी की हालत बिगड़ती जा रही थी.

 नेहरू  ने लाखों की जनसभा में कहा-

‘बापू मरे तो देश की आत्मा मर जाएगी.’

उपवास का चौथा दिन (16 जनवरी)-

 मंत्रियों ने अपने बंगले शरणार्थियों के रहने के लिए खोल दिए. दिल्ली शहर की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार होने लगा. गांधी की हालत बहुत खराब हो गई, पेशाब के साथ एसीटोन आने लगा.

उपवास का पांचवां दिन (17 जनवरी)-

सभी मजहबों के लोगों ने स्वेच्छा से राष्ट्रपिता के सम्मान में दिल्ली की सभी दुकानें बाजार और उद्योग धंधे बंद रखे.

 उपवास का छठवां और अंतिम दिन (18 जनवरी)-

दिल्ली शहर के सभी रेस्तरां, ढाबों और होटलों के कर्मचारियों ने भोजन परोसने से मना कर दिया. जब तक उनके बापू खाना नहीं खाएंगे, वे लोग किसी और को भी नहीं खिलाएंगे. सभी शरणार्थी शिविरों से शांति स्थापना के लिखित संदेश महात्मा गांधी के पास पहुंचे. इन संदेशों का सार था- ‘अब दंगे नहीं होंगे और न ही अव्यवस्था होगी.’ बापू को लगा कि लोगों के भीतर का पिशाच मर रहा है और कर्तव्यबोध अंगड़ाई लेने लगा है. उपवास अब तोड़ा जा सकता था. बापू ने कहा, ‘अगर दिल्ली संभल जाएगी तो पाकिस्तान की स्थिति भी संभल जाएगी. अगर यह आश्वासन, वादे टूटे तो दूसरा उपवास अनिवार्य हो जाएगा.’  इस महान उपवास ने लाखों जान बचा लीं. भारत को अराजकता की आंधी से निकालकर सृजन और विकास की बयार हिंसा की लपटों ने सत्य और अहिंसा के साधक गांधी को हिलाकर रख दिया |

जब  देश  का  विभाजन  हुआ  तब  भारत  और  पाकिस्तान  की  ओर  से  पूंजी के बंटवारे  का  हिसाब  लगाने के लिये कई समितियां बैठी  थीं ।  हर  चीज़  का  बंटवारा  हुआ । घोड़े पाकिस्तान भेज दिए गए, बग्घियाँ भारत में  रह गयीं । मेज-कुर्सी , पुस्तकालय वगैरह सब चीजों का बंटवारा ऐसे ही हुआ। अंत  में  खजाने में उपलब्ध रुपयों  का  हिसाब  हुआ। आकलन के मुताबिक तय हुआ कि पाकिस्तान  के  हिस्से  कुल जमा 75  करोड निकलते  थे। इनमें से भारत  सरकार ने  कामचलाने  हेतु  20  करोड़ रुपये  पाकिस्तान  को  एडवांस में दे दिए थे। अब  रह गए बाकी  के  55  करोड़ रुपये ।

इतने  में  कश्मीर की  ओर  से  कबायली और पाकिस्तानी सेना का हमला हो गया। भारत  सरकार ने  एलान  कर दिया  कि जब तक  पाकिस्तान अपने घुसपैठिये वापस लेकर युद्ध बंद नहीं करेगा तब तक  भारत  सरकार  पाकिस्तान  के 55  करोड़ रुपये की दूसरी किश्त  रोककर  रखेगी । दूसरी  ओर  पाकिस्तान  ने भारत  पर  वचनभंग  का  आरोप  लगाते  हुए  उसे इन्टरनेशनल  कोर्ट  में घसीटने  की  धमकी  दे  दी ।



गांधी जानते थे  कि  ये  आजाद  भारत  का  पहला  करार  है  और  अगर  पहले  करार  में  ही  भारत  को  अंतर्राष्ट्रीय  कोर्ट  का  सामना  करना  पड़ा  तो  आने  वाले  दिनों  में  कौन  सा  देश  भारत  पर  भरोसा  करेगा ?  गांधीजी  को  यह  भय  भी  सता  रहा  था  कि  पाकिस्तान  को  उनके  55  करोड़  लौटाने  में  विलंब  होगा  तो  वहां  के  अल्पसंख्यक  हिंदुओ  पर  पाकिस्तान  अधिक  हिंसा  कर  सकता  है . . . .गांधीजी  की  बात  मानकर  भारत  सरकार ने  14  जनवरी  1948  के  दिन  नैतिक  मूल्यों  के  आधार  पर  पाकिस्तान  को  55  करोड़  रुपये  दिए ।
फिर  भी  गांधीजी ने  अपना अनशन  नही  तोड़ा क्योंकि  उनका अनशन तो इस बात के लिए था ही नहीं।  दंगा  शांत  होने  के  बाद जब दंगाइयों ने  अपने-अपने  हथियार  बापू  के  सामने  रखे  तब  जाकर  18  जनवरी  1948  के  दिन  गांधीजी ने  अपना  अनशन  समाप्त  किया ।

दिल्ली  देश  की  राजधानी  है , दिल्ली  देश  की  नाक  है ।  जब  दिल्ली  में  ही  हम  दंगों को रोकने  में हार  जाते  तो  हम  दुनिया  के  सामने  क्या  मुंह  दिखाते ?  गांधीजी ने  जो  अनशन  किया  था  वो  दिल्ली  बचाने  हेतु  किया  था, दंगा  शांत  करने  हेतु  किया  था  ना कि  पाकिस्तान  को  55  करोड़ रुपये दिलवाने के लिए . . . . !

वैसे  भी  नैतिक  आधार  पर  पाकिस्तान  को  55  करोड़  लौटाने  के  पक्ष  में  अकेले  गांधीजी  ही नहीं  थे ।  55  करोड़  लौटाने  के  पक्ष  में  RBI  गवर्नर  एच.वी.देशमुख , सी . डी. कामत , राजेन्द्र  प्रसाद , राजगोपालाचारी आदि भी  थे ।



 कोई नया आंदोलन वे छेड़ नहीं सकते थे, आखिर अपने ही लोगों की सरकार के खिलाफ कोई आंदोलन करे भी तो कैसे? उनकी 125 वर्ष तक जीने की अभिलाषा समाप्त हो चुकी थी. अपनी अंतरात्मा की पुकार पर 12 जनवरी, 1948 को महात्मा गा, पाकिस्तान को रु. देने के निर्णय के बाद भी उपवास जारी रहा तब भी कई लोगों ने यही माना कि पाकिस्तान को धन दिलवाना ही उपवास का ध्येय था.

धर्मांध लोगों का कोई धर्म नहीं होता. महात्मा गांधी की अच्छाई ही उनके लिए सबसे बड़ी बुराई साबित हुई. 30 जनवरी, 1948 को महामानव की हत्या कर दी गई. 31 जनवरी, 1948 को ‘हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ समाचार पत्र का मुख्य पृष्ठ कोरा पड़ा था और उस पर सिर्फ इतना लिखा था, ‘गांधी जी अपने ही लोगों द्वारा मार दिए गए, जिनकी मुक्ति के लिए जीए. विश्व इतिहास का यह दूसरा क्रूसीफिक्शन भी एक शुक्रवार को किया गया-ठीक वही दिन जब आज से एक हजार नौ सौ पंद्रह साल पहले ईसा मसीह को मारा गया था. परमपिता, हमें माफ कर दो.’



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