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लेनिन का शव ज्यों का त्यों :रूसी वैज्ञानिकों का बेहद चुनौती भरा काम


लेनिन का शव आज भी ज्यों का त्यों : रूसी वैज्ञानिकों का बेहद चुनौती भरा काम





मोहन लाल शर्मा
                                                                        बीबीसी संवाददाता


ये कहानी रूसी क्रांति के सबसे बड़े चेहरे व्लादीमीर लेनिन से जुड़ी है जिनकी अगुवाई में साल 1917 में बोल्शेविक क्रांति हुई. लेकिन ये कहानी उस क्रांति से जुड़ी हुई नहीं बल्कि लेनिन के ममी में तब्दील होने से जुड़ी है.
क्रांति के बाद लेनिन सिर्फ़ रूस में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लिविंग लीजेंड बन चुके थे.
रूसी शहर गोर्की में लेनिन अपनी पत्नी के साथ एकाकी जीवन बिता रहे थे. 1922 के आखिरी महीनों के आते आते लेनिन की सेहत खराब होने लगी. लकवे के चलते शरीर का आधा हिस्सा काम करना बंद कर चुका था. अब उनके लिए बोलना भी आसान नहीं था.
रूसी क्रांति का जनक ज़िंदगी से जंग हारने वाला था. फिर वो दिन भी आ गया जब लेनिन इस दुनिया को छोड़कर चले गए.
21 जनवरी, 1924 सुबह 6 बजकर 50 मिनट पर लेनिन की मौत हो गई. दो दिन बाद लेनिन के शव को विशेष रेलगाड़ी से गोर्की से मॉस्को लाया गया.


             इतिहासकारों के मुताबिक सत्ता पर काबिज़ स्टालिन
             का प्रस्ताव था दिया कि लेनिन का शव आने वाली
             पीढ़ियों के लिए संरक्षित किया जाए

लेनिन को अंतिम श्रद्धांजलि

मौत के बाद मॉस्को के रेड स्क्वायर पर क्रेमलिन की दीवार के पास लकड़ी का एक अस्थाई ढांचा बनाया गया. इसके भीतर ताबूत में लेनिन का शव लोगों के अंतिम दर्शन के लिए रखा गया. लाखों लोग भयंकर ठंड में भी अपने इस नेता को अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ पड़े थे.
लेकिन लेनिन का शव आज जिस स्थिति में है, उसे इस स्थिति में लाना रूसी वैज्ञानिकों के लिए बेहद चुनौती भरा था.
लेनिन की मौत से तीन महीने पहले 1923 में एक गोपनीय बैठक हुई. इस बैठक में ये तय किया जाना था कि मौत के बाद लेनिन के शव को लेकर क्या रणनीति होगी.
इतिहासकारों के मुताबिक सत्ता पर काबिज़ जोज़ेफ़ स्टालिन का प्रस्ताव था कि लेनिन का शव आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित किया जाए.

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रूसी इतिहास के जानकार एसोसिएट प्रोफेसर राजन कुमार बताते हैं, "लेनिन को ममी में बदलने का विरोध भी किया गया क्योंकि उनका मानना था कि कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा के हिसाब से व्यक्ति से ज़्यादा अहम संस्था होती है लेकिन लेनिन एक बेहद ही पॉपुलर नेता थे, लोगों के मन में लेनिन के लिए अपार प्रेम था. ऐसे में विचारधारा के विरुद्ध ही सही लेकिन इसका मकसद मूर्ति पूजा नहीं था. उन्हें लगा कि अगर कुछ महीनों तक शव रखा जा सकता है तो रख लेते हैं इसके बाद आगे सोचा जाएगा. इस तरह धीरे धीरे स्टालिन का समय बीत गया और फिर तब से आज तक ये वहीं रखा हुआ है."



रेड स्क्वॉयर

दो हज़ार साल पहले मिस्र में ममी बनाई जाती थीं. पर यहाँ सवाल ये था कि 20 वीं शताब्दी में अगर किसी शव को संरक्षित किया जाए तो कैसे? एक पहलू ये भी था कि मिस्र की ममी सूखी थीं लेकिन लेनिन को तो 'जीवित समान स्थिति' में रखा जाना था.
जब लेनिन के शव को रेड स्क्वायर पर रखा गया तो उस वक्त तापमान बाहर का तापमान था - 23 डिग्री सेल्सियस. इसलिए बेहद सर्द मौसम में लेनिन का शव नुकसान से बचा रहा लेकिन मार्च आते-आते लेनिन के शरीर पर असर दिखने लगा. यानी कि चेहरे और शरीर की त्वचा पर बैक्टीरिया का संक्रमण दिखाई देने लगा.
लेनिन के शव को संरक्षित करने के तमाम उपायों पर ज़ोरों से चर्चा होने लगी. लेकिन ये चर्चा दो वैज्ञानिकों पर जा कर रुक गई. बराबियाव और स्पास्की.



लेनिन की समाधि के बाहर खड़े हुए राष्ट्रपति
 ब्लादिमीर पुतिन

 आधुनिक ममी

प्रोफेसर बराबियाव यूक्रेन के कारकाव विश्वविद्यालय में डीन ऑफ मेडिकल एनाटमी थे और स्पास्की रूस के लीडिंग बायोकेमिस्ट थे. इनके सामने लेनिन को एक आधुनिक ममी में तब्दील करने की चुनौती थी. अगर ये सफल रहे तो ममी की दुनिया में इतिहास रचा जाने वाला था.
लेनिन के शव को संरक्षित करने के लिए वैज्ञानिक जिस तकनीक का इस्तेमाल करने वाले थे उसका इस्तेमाल इससे पहले नहीं किया गया था. बताया जाता है कि इसलिए लेनिन के शव पर तकनीक के इस्तेमाल से पहले गोपनीय प्रयोगशाला में दूसरे शवों पर एक्सपरीमेंट किए गए.
संरक्षणकर्ता एक ऐसे जैव रासायनिक यानी बायोकेमिकल फार्मूले पर काम कर रहे थे जो शव के क्षरण होने की प्रक्रिया को रोक सकें. यानी वो ऐसा फार्मूला खोज रहे थे जो लेनिन के शव को मृत और ज़िंदा की सीमा रेखा पर रख सकें ।



मिस्र की ममी से अलग


विज्ञान पत्रकार पल्लव बागला बताते हैं, "ममी बनाने के लिए ज़रूरी है कि बायलॉजिकल टिश्यू के क्षरण को रोका जा सके, मौत होने के बाद जब शरीर में जीवन शक्ति ख़त्म हो जाती है, खून दौड़ना बंद हो जाता है तो बैक्टीरिया, फंगस, वायरस और कीड़े धीरे-धीरे शरीर को खाने लगते हैं. ये प्राकृतिक प्रक्रिया है. अगर इस प्रक्रिया को रोक दें तो आप बॉडी को उसी शेप में मैंटेन कर सकते हैं."
ये एक ऐसी तकनीक बनने वाली थी जो कि दो हज़ार साल पुरानी मिस्र की ममीकरण की प्रक्रिया की तरह ही ममी बनाने की प्रक्रिया में लेनिन के सभी अंदरूनी अंगों को निकाल दिया. दिल और दिमाग को बाहर निकाल कर कुछ दिनों के लिए सुरक्षित किया गया बाद में इन्हें भी नष्ट कर दिया गया|



चेहरा बचाना सबसे बड़ी चुनौती
इस तरह से वैज्ञानिकों को सिर्फ लेनिन के खोल को सुरक्षित करना था. टैंक में ग्लिसरीन और पोटेशियम एसिटेट का घोल भरा गया. चुनौती इतनी बड़ी थी कि अगर इस मिश्रण का अनुपात ज़रा भी गड़बड़ होता तो शव को नुकसान पहुंच सकता था.
ग्लिसरीन का इस्तेमाल इसलिए किया गया ताकि शव की नमी बरकरार रहे और पोटेशियम ऐसिटेट इसलिए ताकि शरीर की आकृति और नेचुरल रंग बरकरार रहे.
लेकिन ममीकरण की सबसे बड़ी चुनौती लेनिन के चेहरे और भाव को जीवित अवस्था जैसा बनाना था. इसके लिए चेहरे का रंग रोगन किया गया. आंख नाक कान के लिए अलग अलग शेड का इस्तेमाल किया गया.
क्या होता अगर लेनिन का चेहरा विकृत हो जाता. क्योंकि बीतते वक्त के साथ लेनिन के चेहरे पर काले चकत्ते पड़ने लगे थे. इसके लिए वैज्ञानिकों को उनके चेहरे को बैक्टीरिया रहित बनाना था. हाइड्रोजन पर ऑक्साइड और एसिटिक ऐसिड के मिश्रण से इन संरक्षण कर्ताओं ने लेनिन के चेहरे को नेचुरल लुक दे दिया.




लेनिन की समाधि
जुलाई 1924 को वैज्ञानिकों ने अपना काम पूरा कर किया और असंभव जैसे काम को संभव कर दिखाया.
दिल्ली विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के ऐसोसिएट प्रोफेसर पीके सिंह कहते हैं, "लेनिन के शरीर को बचाने के लिए उसमें बॉमिंग किया गया था, इसमें पहले बॉडी कैमिकल से धोया जाता है, सामान्यत: इसके लिए एसेटिक एसिड का प्रयोग किया जाता है. इसके बाद कैमिकल से टिश्यु को रिस्टोर किया जाता है. इस तरह लेनिन के शव को संरक्षित किया गया."
हालांकि, 1924 से लेकर आज तक लेनिन की समाधि का आकार और स्वरुप कई बार बदला.
सोवियत संघ के पतन के बाद कई बार इस बात पर भी चर्चा हुई की लेनिन के शव का अंतिम संस्कार कर दिया जाए लेकिन लेनिन अभी भी वहीं हैं जहाँ 1924 में थे।

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